Bad ideas

समीक्षा एक प्रेम दर्शन है

मुक्तिबोध प्रगतिवादी नहीं रह गए। मार्क्सवादी बने रहे। दोनों में विरोध कुछ लोगों को दीख सकता है। लेकिन मुक्तिबोध के अनुसार मार्क्सवादी होने के कारण ही वे प्रगतिवाद के दायरे से आगे निकल सके। प्रगतिवाद एक समय के बाद एक आग्रह जैसा बन कर रह गया था। एक मायने में दुराग्रह। कम से कम मुक्तिबोध … Continue reading समीक्षा एक प्रेम दर्शन है →

प्रगतिवाद : मानवता-सिंधु में डूबी व्यक्ति-धारा ?

मुक्तिबोध शृंखला:29  मुक्तिबोध मार्क्सवादी हैं। मार्क्सवादी होने के साथ-साथ प्रगतिवादी भी। क्या मार्क्सवादी दृष्टि ही साहित्य और कला में प्रगतिवाद के नाम से जानी जाती है? क्या कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रभाव विस्तार करने के लिहाज से ही प्रगतिशील आंदोलन का महत्त्व है?

मुक्तिबोध और मार्क्सवाद: एक अधूरा संवाद

मुक्तिबोध शृंखला:28 मुक्तिबोध के मार्क्सवाद और उनके व्यक्तित्व में एक फाँक की शिकायत एक समय तक हिंदी के कुछ मार्क्सवादी आलोचक करते रहे। उसका कारण था उनके अनुसार मुक्तिबोध में निजता या आत्मपरकता का अतिरेक। लेकिन मुक्तिबोध मार्क्सवाद तक आए थे अपनी उस समस्या का समाधान खोजते हुए कि मनुष्य अपना विस्तार कैसे कर सकता … Continue reading मुक्तिबोध और मार्क्सवाद: एक अध

मार्क्सवाद : वीरान अमानवीय दूरियाँ

मुक्तिबोध शृंखला:27 मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की शताब्दी के मौक़े पर उसकी सांसारिक उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए भी उसे समाजवादी व्यवस्था मानने से इनकार किया है। उसका कारण उनके मुताबिक़ यह है कि चीन में व्यक्ति अभी भी पार्थक्यविहीन जीवन नहीं जी रहा है। चीन का जन आज भी … Continue reading मार्क्सवाद : वीरान अमानवीय दूरि

घृणा का दैत्य और स्नेह का शुचि-कान्त मादक देवता

मुक्तिबोध शृंखला:26 पूँजीवाद से मुक्तिबोध की घृणा समझौताविहीन थी। क्या वे उसके कारण कम्युनिस्ट हुए या कम्युनिस्ट होने के कारण पूँजीवाद को उन्होंने अस्वीकार किया?

ईमान का डंडा, बुद्धि का बल्लम, अभय की गेती और हृदय की तगारी!

मुक्तिबोध शृंखला:25 ‘नए की जन्म कुंडली: एक’ में लेखक या वाचक की मुलाकात अपने एक मित्र से 12 वर्ष बाद होती है। ऐसा मित्र जिसे वह बहुत बुद्धिमान समझता था। वह ऐसा व्यक्ति था जो अपने विचारों को अत्यधिक गम्भीरतापूर्वक लेता:  “वे उसके लिए धूप और हवा जैसे स्वाभाविक प्राकृतिक तत्त्व थे।…दरअसल, उसके लिए न … Continue reading ईमान का डंडा, बुद्धि का बल्लम, अभय की गेत

पूँजीवाद : तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

मुक्तिबोध शृंखला : 24 मनुष्य इतना अकेला क्यों है? मनुष्यों में इतने फासले क्यों हैं? क्यों अमानवीय दूरियां हम सबको घेरे हुए हैं? या एक दूसरे से अलग किए हुए हैं? जीवन में इतना ओछापन क्यों हैं? सतहीपन, छिछलापन क्यों हैं? क्यों इंसान खुद को हासिल नहीं कर पाता?

प्रभात के कपोलों को हृदय के दाह-चुंबन से लाल कर दूँगा मैं

मुक्तिबोध शृंखला:23 लिखना और पढ़ना मुक्तिबोध के साहित्य संसार में विशालता के स्पर्श का एक जरिया है। ‘आ-आकर कोमल समीर’ कविता के आरम्भ में ही एक टेबल पर झुका सर दिखलाई देता है जिसके उलझे बालों को समीर आ-आकर सहलाता रहता है। यह तूफ़ान नहीं है जो मुक्तिबोध की कविता के प्रचलित स्वभाव के लिहाज़ … Continue reading प्रभात के कपोलों को हृदय के दाह-चुंबन से लाल कर द

How Might a Feminist Respond to a Collegial Mansplaining of Feminism? Anannya Dasgupta

Guest post by ANANNYA DASGUPTA Scroll had recently featured the Foreword to a book, with the heading ‘What do allies write about when they write (poetry) about feminism?’ The descriptive tag read – Saikat Majumdar surveys a unique anthology in his Foreword to ‘Collegiality and Other Ballads’. What makes this anthology unique? Sometime in 2020, … Continue reading How Might a Feminist Respond to a Collegial Mansplaining of Feminism? Anannya Dasgupta →

विराट की सौंदर्याभा के जल का स्पर्श!

मुक्तिबोध शृंखला:22 “… पहली कठिनाई यह है कि इस युग का संगीत टूट गया है और जिस निश्चिंतता के साथ लोग अब तक गाते और छंद बनाते आए थे, वह निश्चिंतता तेरे लिए नहीं है।” “…. भावों के तूफ़ान को बुद्धि की जंजीर से कसने की उमंग कोई छोटी उमंग नहीं है। तेरी कविता के … Continue reading विराट की सौंदर्याभा के जल का स्पर्श! →