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कस्बे में ब्रह्माण्ड

मुक्तिबोध शृंखला : 12 “किसी और कवि की कविताएँ उसका इतिहास न हों, मुक्तिबोध की कविताएँ अवश्य उनका इतिहास हैं. जो इन कविताओं को समझेंगे उन्हें मुक्तिबोध को किसी और रूप में समझने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, ज़िंदगी के एक-एक स्नायु के तनाव को एक बार जीवन में दूसरी बार अपनी कविता में जीकर मुक्तिबोध … Continue reading कस्बे में ब्रह्माण्ड →

मुक्तिबोध की भाषा : स्निग्धता और शक्ति का मेल

मुक्तिबोध:11 मुक्तिबोध की भाषा : स्निग्धता और शक्ति का मेल मुक्तिबोध ने नेमिचंद्र जैन को लिखे पत्र में एक ध्वस्त किले के मलबे के बीच उगती वन्य वनस्पतियों  के रूप में अपनी कल्पना की थी. ‘हरे वृक्ष’ शीर्षक कविता इस पत्र के आस-पास लिखी गई मालूम पड़ती है : ये हरे वृक्ष सहचर मित्रों-से हैं … Continue reading मुक्तिबोध की भाषा : स्निग्धता और शक्ति का मेल →

ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति

मुक्तिबोध शृंखला : 10 कहते हैं लोग-बाग बेकार है मेहनत तुम्हारी सब कविताएँ रद्दी हैं. भाषा है लचर उसमें लोच तो है ही नहीं बेडौल हैं उपमाएँ, विचित्र हैं कल्पना की तस्वीरें उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है. शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़ … Continue reading ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति →

समाज और व्यक्ति की लयतालता

मुक्तिबोध शृंखला : 8 कवि अपने जीवन में एक ही कविता बार-बार लिखता रहता है, जैसे कथाकार एक ही कहानी कहता है. मुक्तिबोध की खोज क्या है जो उनकी हर कविता, कहानी, निबंध, आलोचनात्मक निबंध में अनवरत चलती रहती है? क्या वह सम्पूर्णता की तलाश है? क्या वह एक विशाल जीवन (जिसे वे एक जगह … Continue reading समाज और व्यक्ति की लयतालता →

चाहिए मैत्री भाव का पाथेय

मुक्तिबोध शृंखला:7 मुक्तिबोध को जो स्नेह और आदर अपनी 47 साल की मुख़्तसर-सी ज़िंदगी में मिला, उससे किसी भी लेखक को  ईर्ष्या हो सकती है. वार्धक्य, आयु आदि को लेकर मुक्तिबोध के समय की समझ के मुताबिक़ वे बुजुर्ग हो चुके थे. आज 2021 में यह सोचकर आश्चर्य ही हो सकता है कि अपने चौथे … Continue reading चाहिए मैत्री भाव का पाथेय →

ज्ञान की सरहद को तोड़ना

मुक्तिबोध शृंखला 6 आलोचना आत्मपरकता से मुक्त दीखना चाहती है. भावना मुक्त. पसंद-नापसंद से परे वस्तुनिष्ठता की खोज. है तो लेकिन वह आखिर देखने की एक क्रिया. देखने का यह व्यापार क्या ‘दर्शक कौन है?’ के प्रश्न को परे कर सकता है? क्या यह देखनेवाले के कद पर निर्भर है? उसका फैसला कौन करेगा? क्या … Continue reading ज्ञान की सरहद को तोड़ना →

ज्ञान के दाँत और ज़िंदगी की नाशपाती

मुक्तिबोध शृंखला : 5 “मुझे समझ में नहीं आता कि कभी-कभी खयालों को, विचारों को भावनाओं को क्या हो जाता है! वे मेरे आदेश के अनुसार मन में प्रकट और वाणी में मुखर नहीं हो पाते.” यह क्या सिर्फ मुक्तिबोध का ही संकट है? हम सबके साथ यह होता है कि प्रायः वह जो इतना … Continue reading ज्ञान के दाँत और ज़िंदगी की नाशपाती →

The Tarun Tejpal Judgement – where do we go from here? Abhinav Sekhri

Guest post by ABHINAV SEKHRI In a 2013 opinion piece, Professor Pratiksha Baxi wrote about the injustice that victims of sexual assault have historically suffered at the hands of the criminal process in India, reminding us that even those cases which forced our laws to change were stories of sexual assaults never proven before the eyes of … Continue reading The Tarun Tejpal Judgement – where do we go from here? Abhinav Sekhri →

कितनी कठिन है न्याय्य मैत्री!  

मुक्तिबोध शृंखला:4 “जगत और जीवन में अंतर इतना! मनुष्य की अपनी आतंरिक मौलिक प्यास क्या यों ही अँधेरे में रह जाए सिसकती सी?” “मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में” नामक निबंध में मुक्तिबोध मनुष्य की ‘अपनी आतंरिक मौलिक प्यास’ के न बुझ पाने का सवाल उठाते हैं.