मुक्तिबोध शृंखला:4 “जगत और जीवन में अंतर इतना! मनुष्य की अपनी आतंरिक मौलिक प्यास क्या यों ही अँधेरे में रह जाए सिसकती सी?” “मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में” नामक निबंध में मुक्तिबोध मनुष्य की ‘अपनी आतंरिक मौलिक प्यास’ के न बुझ पाने का सवाल उठाते हैं. उन्होंने निश्चय ही कार्ल मार्क्स की “1844 की … Continue reading कितनी कठिन है न्याय्य मैत्री! →
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