ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति

मुक्तिबोध शृंखला : 10 कहते हैं लोग-बाग बेकार है मेहनत तुम्हारी सब कविताएँ रद्दी हैं. भाषा है लचर उसमें लोच तो है ही नहीं बेडौल हैं उपमाएँ, विचित्र हैं कल्पना की तस्वीरें उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है. शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़ … Continue reading ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति →

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