यह असंतोष की वह्नि स्वार्थ से परे रही

मुक्तिबोध शृंखला:17 ‘अँधेरा मेरा ख़ास वतन जब आग पकड़ता है’, इस पंक्ति पर ध्यान अटक गया। क्या अँधेरे वतन की बात की जा रही है? या अँधेरे की जो कवि का ख़ास वतन है? क्या इस अँधेरे को आग लग जाती है?  वह अँधेरा को कवि का स्वदेश है? मुक्तिबोध का जिक्र आते ही अँधेरा … Continue reading यह असंतोष की वह्नि स्वार्थ से परे रही →

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